Mandsaur Gangrape Case: मध्यप्रदेश के सबसे चर्चित मंदसौर गैंगरेप मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए दोनों आरोपियों इरफान और आसिफ की फांसी की सजा पर रोक लगा दी। कोर्ट ने फैसले में कहा दोबारा सुनवाई जरुरी है, सिर्फ DNA रिपोर्ट के आधार पर फांसी की सजा नहीं सुनाई जा सकती। अब इसके बाद ये मामला फिर से ट्रायल कोर्ट में में चलाया जायेगा।
क्या था मामला
26 जून 2018 को मंदसौर में दो आरोपियों ने सात साल की बच्ची को अगवा करके दुष्कर्म किया था और फिर उसे झाड़ियों में फेक दिए था इस घटना से पूरा प्रदेश आक्रोशित था ट्रायल कोर्ट ने इस मामले में 2 आरोपियों को फांसी की सजा सुनाई थी फिर हाईकोर्ट ने इसे फैसले को बरकार रखा था इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया है।
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DNA रिपोर्ट ही काफी नहीं, एक्सपर्ट की गवाही भी जरूरी
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि सिर्फ DNA रिपोर्ट के आधार पर सजा नहीं दी जा सकती। जब तक इस रिपोर्ट को तैयार करने वाले वैज्ञानिक (साइंटिफिक एक्सपर्ट) खुद कोर्ट में आकर गवाही नहीं देंगे और जांच की पूरी प्रक्रिया नहीं समझाएंगे, तब तक इसे मजबूत सबूत नहीं माना जाएगा।
कोर्ट ने यह भी कहा कि DNA रिपोर्ट से जुड़े सभी दस्तावेज अभियोजन पक्ष (सरकार) को बचाव पक्ष (आरोपियों के वकील) को देने होंगे ताकि वे इसे चुनौती दे सकें। इसके बाद एक्सपर्ट कोर्ट में अपनी रिपोर्ट का बचाव कर सकेंगे।
अब आरोपी विचाराधीन कैदी होंगे
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अब आरोपी सजायाफ्ता (जिन्हें सजा मिल चुकी है) नहीं रहेंगे, बल्कि विचाराधीन कैदी माने जाएंगे। यानी अब फिर से अदालत में सबूतों को जांचा जाएगा और उसके बाद सजा या बरी करने का फैसला होगा।
पहले क्या हुआ था?
2018 में मंदसौर में इस घटना के बाद पूरे देश में आक्रोश था। तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस केस की फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुनवाई कराने का आदेश दिया था। मंदसौर जिला कोर्ट ने 55 दिनों में फांसी की सजा सुना दी, जिसे बाद में हाईकोर्ट ने भी बरकरार रखा। लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने इसे रद्द कर दिया है।
आरोपियों के वकील बोले- पुलिस जांच निष्पक्ष नहीं थी
आरोपियों के वकील अमित दुबे ने कहा कि पुलिस ने इस मामले की जांच सही से नहीं की। चुनावी माहौल की वजह से जल्दीबाजी में केस चलाया गया, जिससे कई महत्वपूर्ण बिंदु नजरअंदाज हो गए।
DNA सबूत को लेकर कोर्ट का सख्त रुख
कोर्ट ने कहा कि DNA रिपोर्ट को निर्णायक सबूत नहीं माना जा सकता, जब तक इसे जांचने वाले वैज्ञानिक खुद आकर अपनी रिपोर्ट को सही साबित न करें। आमतौर पर अदालतें DNA रिपोर्ट को ही अंतिम मान लेती हैं, लेकिन इस केस में इसे साबित करना जरूरी होगा।
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