High Court News: हाई कोर्ट की डिविजन बेंच ने लोकायुक्त संगठन में प्रतिनियुक्ति पर भेजे गए न्यायिक अधिकारियों की भूमिका पर सख्त टिप्पणी की है। कोर्ट ने कहा कि लोकायुक्त में भेजे गए जज सलाह देने के लिए होते हैं, न कि जांच अधिकारी बनने के लिए। यह टिप्पणी उज्जैन नगर निगम के अधिकारियों के खिलाफ चल रहे एक मामले में की गई, जिसमें बिल्डिंग परमिशन को लेकर विवाद था।
कोर्ट का मुख्य तर्क
जस्टिस प्रकाशचंद्र गुप्ता की अगुवाई वाली खंडपीठ ने कहा कि यदि किसी को अपनी जमीन पर भवन निर्माण की अनुमति को लेकर आपत्ति है, तो वह लोकायुक्त के बजाय रिट या सिविल केस दायर कर सकता है।
कोर्ट ने यह भी कहा कि लोकायुक्त ने इस मामले में कोई जांच नहीं की, बल्कि प्रतिनियुक्ति पर भेजे गए सलाहकार से जांच कराई। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ऐसे न्यायिक अधिकारी लोकायुक्त में केवल कानूनी सलाह देने के लिए होते हैं, न कि जांच करने के लिए।
लोकायुक्त की जांच प्रक्रिया पर सवाल
कोर्ट ने कहा कि लोकायुक्त द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट कभी-कभी आरोप पत्र का आधार बन जाती है, जो अदालत में आरोपी के खिलाफ इस्तेमाल होती है। हालांकि, लोकायुक्त किसी भी जांच के लिए अन्य अभियोजन एजेंसियों की सेवाएं ले सकता है, लेकिन न्यायिक अधिकारी ऐसा नहीं कर सकते।
कोर्ट ने कहा कि न्यायिक अधिकारियों को जांच में शामिल करना न्यायिक स्वतंत्रता और शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन है।
विशेष न्यायाधीश की भूमिका पर भी सवाल
हाई कोर्ट ने यह भी माना कि विशेष न्यायाधीश ने इस मामले में कानून की सही व्याख्या किए बिना ही आरोप तय कर दिए थे। याचिकाकर्ताओं की ओर से सीनियर एडवोकेट अजय बागड़िया ने पैरवी की।
क्या है पूरा मामला?
यह मामला उज्जैन के यूनिवर्सिटी रोड स्थित एक जमीन पर बिल्डिंग परमिशन को लेकर दो पक्षों के बीच विवाद से जुड़ा है। एक पक्ष ने नगर निगम के सिटी प्लानर मका पाठक, बिल्डिंग अधिकारी रामबाबू शर्मा, अरुण जैन और बिल्डिंग निरीक्षक मीनाक्षी शर्मा के खिलाफ लोकायुक्त में शिकायत की थी। इस केस के खिलाफ अधिकारी कोर्ट पहुंचे थे।
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