टेलीविजन पर न्यूज आ रही थी कि फ्रांस ने भारत के मल्टी बैरल रॉकेट लॉन्चर ‘पिनाक’ को खरीदने में दिलचस्पी दिखाई है। कुछ और देश भी इसमें रुचि दिखा रहे हैं। आर्मेनिया पहले ही इसका सफल उपयोग कर रहा है। सचमुच गर्व की बात है। लेकिन खबर सुनते हुए मैं गुस्से में एंकर के लिए उल्टा-सीधा बोलने लगा। पास में बैठी धर्मपत्नी मेरे इस अचानक उबाल पर बहुत चकित हुई। कारण पूछने पर मैंने बताया कि तुमने अभी सुना नहीं कि न्यूज में क्या कहा गया ? वह बोली कि मैंने ध्यान नहीं दिया, मेरा ध्यान मैथी छांटने में था। आप ही बताएं कि एंकर ने ऐसा क्या बोल दिया ?
भगवान शिव के धनुष का नाम ‘पिनाक’
मैंने कहा कि वह कह रहा था कि ‘पिनाका’ को डीआरडीओ ने बनाया है। वह बोली कि यह तो खुशी की बात है। मैंने कहा कि मुझे भी इस बात पर बहुत खुशी हो रही है, लेकिन एंकर ने ‘पिनाक’ को ‘पिनाका’ क्यों कहा ? क्या तुम नहीं जानतीं कि भगवान शिव के धनुष का नाम ‘पिनाक’ है ? इसके नाम पर इस अस्त्र का नामकरण किया गया है। क्या हमारे पौराणिक नामों को भी इस तरह विकृत किया जाता रहेगा ? वह बात को समझ गई।
मैं अक्सर इस तरह की विकृतियों पर तैश खा जाता हूं। लेकिन उसने कहा कि इसमें बेचारे एंकर की क्या गलती है ? उसे तो डीआरडीओ ने यही नाम बताया होगा। बात भी सही थी। लेकिन मैंने कहा कि कम से कम समाचार वाचक को तो इसे ‘पिनाक’ ही बोलना था। फिर सोचा कि वह ऐसी लिबर्टी कैसे ले सकता है? अगर उसे यही नाम दिया गया था, तो वह वही बोलेगा।
राम का रामा, कृष्ण का कृष्णा और शिव का शिवा
खैर, बात आई-गई हो गई। लेकिन रात को सोते समय मैं इस विषय पर लगातार सोचता रहा। क्या डीआरडीओ वालों को शिव जी के धनुष का सही नाम पता नहीं होगा ? यह सही है कि हिन्दी के कई शब्दों को जब रोमन में लिखा जाता है, तब उसमें ‘A’ जुड़ता है, तभी उसे सही माना जाता है। इसी के चलते राम का रामा, कृष्ण का कृष्णा और शिव का शिवा हो गया। बेचारे मिश्र जी मिश्रा जी हो गए, विवेकानंद विवेकानंदा हो गए। ऐसे सैंकड़ों उदाहरण भरे पड़े हैं।
कठिन से सरल की ओर जाती है भाषा
मैं भाषा विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूं और इस नाते बोलचाल की भाषा की ‘शुद्धता’ को लेकर कोई बहुत अधिक आग्रहशील भी नहीं हूँ। मैं जानता हूँ कि भाषा हमेशा कठिन से सरल की ओर जाती है। इसमें शब्द घिसकर नया रूप धारण कर लेते हैं। अनेक तत्सम शब्द तद्भव हो जाते हैं। श्रेष्ठी बेचारे सेठ जी हो गए। पेंटालून पतलून हो गया, गेसलाइट ऑयल घासलेट तेल हो गया। लेन्टर्न का लालटेन हो गया। वत्स का बच्चा, मयूर का मोर, चतुर्थ का चौथा, अष्ठम का आठ, सप्तम का सात, शत का सौ, प्रिय का पिया, वचन का बैन, अश्रु का आंसू, मूढ़ का मूर्ख, मृत्यु का मौत, रात्रि का रात, प्रस्तर का पत्थर हो गया। हजारों शब्द ऐसे हैं जो बोलने में कठिन थे। लोगों को जो बोलना सरल लगा वह उन्होंने बोल दिया वही चल पड़ा तो चल पड़ा।
एक-दूसरे से शब्द ग्रहण करती रहती हैं भाषाएं
मुझे इस बात पर भी कोई आपत्ति नहीं है कि हिन्दी में दूसरी भाषाओं के शब्द क्यों बोले जाते हैं। यह विरोध तो वे लोग अधिक करते हैं, जो भाषा के इतिहास और उसकी प्रकृति को नहीं जानते। भाषाएं कट्टरवादी नहीं होतीं। वे एक-दूसरे से शब्द ग्रहण करती रहती हैं। हिन्दी में अगर अंग्रेजी के शब्द आ गए हैं, तो अंग्रेजी में भी हिन्दी के कई शब्द शामिल और मान्य हो गए हैं। अंग्रेजी शब्दकोशों के हर नए संस्करण में अच्छी-खासी संख्या में हिन्दी के शब्द जुड़ जाते हैं। रही उर्दू की बात तो उसके शब्दों के उपयोग के बिना तो हमारे अधिकतर वाक्य ही पूरे नहीं होते। हां, यह बात अलग है कि बोलने वाले को यह पता नहीं होता कि यह शब्द उर्दू, फारसी या अरबी से आया है। बोलचाल की भाषा में तो भाषा मिश्रित किस्म की ही होती है, वरना आप शुद्ध हिन्दी में कोई बात कहकर देखिए, आपको और सुनने वाले दोनों को बहुत अटपटा लगेगा। उर्दू बोलने वाला भी निखालिस उर्दू बोलकर देख ले, उसे पता चल जाएगा कि वह किस तरह मजाक बन गया है। यह बात फिल्मों में मजाक का विषय बनती रही है।
बहरहाल, साहित्यिक भाषा की बात और है। साहित्यिक लेखक अपनी भाषा की शुद्धता के प्रति आग्रह रखते हैं। कुछ हद तक यह सही भी होता है, वरना भाषा की शुद्धता पूरी तरह लुप्त ही हो जाएगी, जो वांछनीय नहीं है। लेकिन बहुत अधिक तत्सम शब्दों के उपयोग वाली रचनाएं आम पाठकों में लोकप्रिय नहीं हो पातीं। हालांकि साहित्य में उनके प्रयोग का सौन्दर्य अनूठा और आह्लादकारी होता है।
देश की पौराणिक शब्दावली की ठीक समझ जरूरी
बहरहाल, बात ‘पिनाका’ से शुरू हुई थी। सेना में अधिकतर बड़े अफसर वास्तव में हिन्दी कम जानते हैं। सभी हिन्दीभाषी भी नहीं होते। वे ज्यादातर अंग्रेजी में ही पढ़ते-बोलते हैं। लेकिन भारतीय होने के नाते उनसे यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि कम से कम वे अपने देश की पौराणिक शब्दावली की तो ठीक समझ रखें। नहीं मालूम हो तो किसी जानकार से सलाह ली जा सकती है। अर्जुन को अर्जुना, द्रोण को द्रोणा, भीम को भीमा और भीष्म को भीष्मा तो नहीं बोलें। विदेशी लोग बोलें तो समझ आता है, लेकिन भारतीयों का ऐसा बोलना उचित नहीं है।
लगभग सभी देश अपने शस्त्रों के नाम अपने ऐतिहासिक या पौराणिक नायकों के नाम पर रखते हैं। जो जिसे अपना आदर्श मानता है, उसके नाम पर शस्त्रों के नाम रखता है. हमारा पड़ोसी देश ‘गौरी’ और ‘गजनवी’ को आदर्श मानता है, तो उसने भी अपनी मिसाइलों के नाम उन पर रखे हैं। हम भी यदि ऐसा करते हैं तो यह सर्वथा उचित है। लेकिन शस्त्रों के नाम रखने में तो नाम का सही उच्चारण और अर्थ तो समझा ही जाना चाहिए। वरना हमारी नई पीढ़ियां भी इसी तरह ‘पिनाक’ को ‘पिनाका’ कहती रहेंगी और मुझ जैसे लोग टेलीविजन के एंकर को उल्टा-सुल्टा बोलकर अपनी नाराजगी और भड़ास निकालते रहेंगे।
( लेखक कवि और धर्म-आध्यात्मिक विषयों के मर्मज्ञ और अध्येयता हैं )