हाल ही में एक मीडिया रिपोर्ट में छपी खबर ने एक बार फिर, समाज की सोच पर सवाल खड़े कर दिए हैं। चेन्नई के एक अस्पताल में एक महिला को सिर्फ इसलिए पैप स्मीयर टेस्ट से इनकार कर दिया गया, क्योंकि वह अविवाहित थी।
इस घटना ने यह स्पष्ट कर दिया है, कि समाज अभी भी महिलाओं के स्वास्थ्य को सेक्स और विवाह जैसे मुद्दों से जोड़कर देखता है। एक साइकियाट्रिस्ट और साइकोलॉजिकल एनालिस्ट के रूप में, मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है, कि इस तरह की सोच न सिर्फ महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाती है, बल्कि उनके शारीरिक स्वास्थ्य को भी खतरे में डालती है।
मानसिकता और पूर्वाग्रहों का असर
हमारा समाज आज भी महिलाओं के स्वास्थ्य को लेकर पुराने और बेबुनियादी धारणाओं में उलझा है। जब एक अविवाहित महिला को जरूरी चिकित्सा सेवाओं से वंचित किया जाता है, तो यह एक तरह से उसे उसकी व्यक्तिगत पहचान और स्वास्थ्य के लिए योग्य न मानने जैसा है।
यह सोच महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर डालती है, जिसमें उन्हें अपराधबोध, शर्मिंदगी और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है।
महिलाओं के स्वास्थ्य को केवल उनकी यौनिकता या विवाहिक स्थिति से जोड़ना न सिर्फ तर्कहीन है, बल्कि उनके मानसिक और भावनात्मक संतुलन को भी बिगाड़ता है। ऐसी घटनाएं महिलाओं में आत्म-संदेह और असुरक्षा की भावना को बढ़ावा देती हैं, जो उनके मानसिक स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक है।
सामाजिक धारणाएं और उनके परिणाम
समाज में अभी भी यह धारणा बनी हुई है, कि महिलाओं का स्वास्थ्य उनकी यौनिकता और विवाहिक स्थिति से जुड़ा हुआ है। यह सोच बेहद संकीर्ण और नुकसानदायक है। महिलाओं को उनके स्वास्थ्य के मुद्दों पर जज करना और उन्हें विवाह या सेक्स के नजरिए से देखना एक गंभीर समस्या है। इससे उनकी मानसिक और शारीरिक सेहत पर बुरा असर पड़ता है और यह उनके आत्म-सम्मान को ठेस पहुंचाता है।
ऐसे भेदभावपूर्ण रवैये से महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ता है। उन्हें लगातार यह महसूस कराया जाता है, कि उनका स्वास्थ्य उनके विवाहिक या यौनिक संबंधों पर निर्भर है। यह सोच उन्हें चिंता, अवसाद और मानसिक दबाव में डाल सकती है, जो उनके जीवन के हर पहलू को प्रभावित करती है।
समाज का सुधार और जागरूकता की जरूरत
एक मनोचिकित्सक के रूप में मेरा मानना है, कि समाज को इस दिशा में जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है। महिलाओं के स्वास्थ्य को किसी भी पूर्वाग्रह से मुक्त होना चाहिए। चाहे वे विवाहित हों या अविवाहित, उन्हें बिना किसी भेदभाव के चिकित्सा सेवाएं मिलनी चाहिए। यह सिर्फ उनके शारीरिक स्वास्थ्य के लिए जरूरी नहीं है, बल्कि उनके मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी अनिवार्य है।
इस तरह के भेदभावपूर्ण रवैये को रोकने के लिए हमें महिलाओं के प्रति समाज की सोच को बदलना होगा। उन्हें उनके स्वास्थ्य के मुद्दों पर जज करना गलत है। समाज में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव और हिंसा का एक बड़ा कारण यही मानसिकता है। हमें यह समझने की जरूरत है, कि महिलाओं का स्वास्थ्य एक मौलिक अधिकार है और इसमें कोई भी पूर्वाग्रह या भेदभाव नहीं होना चाहिए।
निष्कर्ष
समाज को महिलाओं के स्वास्थ्य को सेक्स और विवाह जैसे मुद्दों से ऊपर उठकर देखना होगा। यह सिर्फ उनके शारीरिक स्वास्थ्य का सवाल नहीं है, बल्कि उनके मानसिक स्वास्थ्य का भी मुद्दा है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा, कि महिलाओं को उनकी चिकित्सीय जरूरतों के आधार पर सम्मान मिले, न कि उनकी विवाहिक या यौनिक स्थिति के आधार पर। एक साइकियाट्रिस्ट के रूप में, मेरा मानना है, कि इस दिशा में जागरूकता बढ़ाने और ठोस कदम उठाने की सख्त जरूरत है, ताकि महिलाओं को समाज में बिना किसी भेदभाव के उनका हक मिल सके।
डॉ सत्यकांत त्रिवेदी
(लेखक मनोचिकित्सक सलाहकार एवं मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञ)