Chanakya Niti: हर कोई जीवन में सफल होना चाहता है। वास्तव में सफलता प्राप्त करने के लिए, आपको कुछ गंभीर प्रयास करने होंगे।
अब, जब अमीर बनने की बात आती है, तो कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अच्छे काम करते हैं और कुछ ऐसे होते हैं जो बहुत अच्छा रास्ता नहीं अपनाते हैं। हालाँकि, बात यह है कि यदि आप अच्छी चीज़ों में रुचि रखते हैं, तो उस जैकपॉट को पाने में कुछ समय लग सकता है।
लेकिन चिंता न करें, आचार्य चाणक्य ने आपको कवर कर लिया है। उन्होंने कुछ ऐसे गुण बताए हैं, जो अगर आपमें हैं तो आपको अमीर बनने से कोई नहीं रोक सकता।
पर-प्रोक्तगुणो यस्तु निर्गुणोऽपि गुणी भवेत्।
इन्द्रोऽपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गुणैः ।।
जिस मनुष्य के गुणों की तारीफ दूसरे लोग करते हैं, वह गुणों से रहित होने पर भी गुणी मान लिया जाता है, परंतु यदि इंद्र भी अपने मुख से अपनी प्रशंसा करे तो उन्हें छोटा ही माना जाएगा।
गुणी वह होता है जो अपने से ज्यादा गुणवान की ओर देखे। इसीलिए वह स्वयं को गुणरहित मानता है। जबकि गुणहीन व्यक्ति अपनी कमियों को छिपाने के लिए अपने मुंह मियां मिट्ठू बनता है।
विवेकिनमनुप्राप्ता गुणा यान्ति मनोज्ञताम्।
सुतरां रत्नमाभाति चामीकरनियोजितम् ।।
जिस प्रकार सोने के आभूषण में जड़ा हुआ रत्न और भी सुंदर दिखाई देता है, उसी प्रकार व्यक्ति को चाहिए कि विवेकपूर्वक अपने में गुणों का विकास करके अपने व्यक्तित्व को और भी अधिक सुंदर बनाए तथा सदैव गुणों को ग्रहण करे।
गुणैः सर्वज्ञतुल्योऽपि सीदत्येको निराश्रयः।
अनर्घ्यमपि माणिक्यं हेमाश्रयमपेक्षते ।।
गुणों में सर्वज्ञ-परमात्मा के समान होने पर भी निराश्रित व्यक्ति दुखी होता रहता है, जैसे अत्यन्त मूल्यवान हीरा भी सोने में जड़े जाने की आशा करता है, उसी प्रकार गुणी मनुष्यों को भी किसी सहारे की अपेक्षा रहती है अर्थात गुणी व्यक्ति भी आश्रय के बिना समाज में वह सम्मान प्राप्त नहीं कर पाता, जिसकी उसको अपेक्षा होती है।
अतिक्लेशेन ये चार्था धर्मस्यातिक्रमेण तु।
शत्रूणां प्रणिपातेन ते ह्यर्था मा भवन्तु मे ।।
जो धन दूसरों को हानि और पीड़ा पहुंचाकर, धर्म विरुद्ध कार्य करके, शत्रु के सामने गिड़गिड़ा कर प्राप्त होता हो, वह धन मुझे नहीं चाहिए। ऐसा धन मेरे पास न आए तो अच्छा है।
चाणक्य कहते हैं कि मनुष्यों को ऐसे धन की कामना नहीं करनी चाहिए, जो दूसरों को हानि पहुंचाकर एकत्रित किया जाए। धर्म विरुद्ध कार्य करके और शत्रु के सामने गिड़गिड़ाने से प्राप्त किया हुआ धन अकल्याणकारी और अपमान देने वाला होता है।
मनुष्य को ऐसा धन प्राप्त करने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए। उसे सदैव परिश्रम और अच्छे उपायों से ही धन का संग्रह करना चाहिए।
किं तया क्रियते लक्ष्म्या या वधूरिव केवला।
या तु वेश्येव सा मान्या पथिकैरपि भुज्यते ।।
ऐसे धन का भी कोई लाभ नहीं, जो कुलवधू के समान केवल एक ही मनुष्य के लिए उपभोग की वस्तु हो। धन-संपत्ति तो वही श्रेष्ठ है, जिसका लाभ राह चलते लोग भी उठाते हैं अर्थात धन-संपत्ति वही श्रेष्ठ है, जो वेश्या के समान अन्य लोगों के भी काम आती है। ।
इस श्लोक का भाव है कि उत्तम धन वही है, जो परोपकार के काम में लगाया जाता है, जिस धन को कोई एक व्यक्ति समेटकर बैठ जाता है, न तो उसे उपयोगी माना जाता है और न ही उससे किसी का लाभ होता है, समाज कल्याण के उपयोग में लाया गया धन ही श्रेष्ठ धन है। धन की गति रुकनी नहीं चाहिए।