रतलाम। Diwali 2023: जिले के कनेरी गांव में सालो से गुर्जर समाज के लोग एक परंपरा का निर्वाह करते चले आ रहे है। जिसमें परंपरा को निभाते वक़्त कोई ब्राह्मण सामने नहीं आ सकता। साथ ही दीपावली के 3 दिन तक गुर्जर समाज के लोग ब्राह्मणों का चेहरा नहीं देख सकते हैं।
हालांकि बदलते समय में शिक्षित युवाओं के साथ अब यह रूढ़िवादिता समाप्त भी होती जा रही है, लेकिन गुर्जर समाज अपनी परम्परा के चलते दीपावली के दिन श्राद्ध का सामूहिक आयोजन आज भी करते आ रहे हैं।
कई साल से निभा रहे परंपरा
भारत संस्कृति परंपरा की खान है और ऐसी ही एक परंपरा का सालों से निर्वाहन रतलाम जिले के गाँव कनेरी का गुर्जर समाज कर रहा है, जो दीपावली के दिन एक विशेष पूजा करते हैं।
दरअसल यह पूर्वाजों का श्राद्ध होता है, गुर्जर समाज दिवाली के दिन अपने पूर्वाजों का सामूहिक श्राद्ध करते है और सालों से इसी तरह यह परम्परा निभाते चले आ रहे हैं।
गांव में निकलता है चल समारोह
श्राद्ध से पहले गुर्जर समाज एकजुट होकर चल समारोह के रूप मे गाँव से बाहर की और निकलते है और गाँव से लगी नदी के किनारे पर श्राद्ध करते हैं।
गुर्जर समाज के लोग भोजन की थाली लेकर गाँव से लगी नदी के किनारे पहुँचते है, यहाँ पहले नारियल से हवन होता है। इसके बाद पानी में ज्वार के पोधे की एक लंबी बेल बनाते है, फिर कुछ लोग इन बेल बनाने वालो के हाथ के पास खाना रखते हैं और फिर एक साथ इस बेल को पानी मे छोड़ देते है।
गुर्जर समाज नदी किनारे इस श्राद्ध के बाद सामूहिक भोजन भी करते हैा, इसके बाद वापस एक साथ गाँव की और लोट जाते हैं।
गुर्जरों के सामने नहीं आते हैं ब्राह्मण
इस परम्परा के साथ एक मान्यता यह भी है की इस पूरी पूजा के दौरान गाँव में रहने वाले ब्राह्मण अपने घरों में बंद रहते है, क्योंकि इस प्रथा का निर्वहन करते समय कोई ब्राह्मण को गुर्जरों के सामने नहीं आना चाहिए।
ऐसा माना जाता है की ब्राह्मणों को श्राप मिला था की इस पूजा के दौरान यदि ब्राह्मण सामने आ जाए तो पूजा सफल नहीं होगी। ,
हालांकि अब बदलते युग में शिक्षित युवाओ की सोच ने इस पुराणी रूढ़िवादिता को धीरे धीरे समाप्त किया है। लेकिन आज भी गांव के पुराने बुजुर्ग ब्राह्मण गुर्जरों की या परंपरा के चलते सहयोग करते हुए खुद ही अपने दरवाजे बंद भी रखते हैं।
शिक्षित युवा पीड़ी ने किया बदलाव
पुराने समय से चली आ रही परंपरा को कई सालों से निभाया जा रहा है,वहीं शिक्षित युवा पीड़ी ने ब्राम्हणों का चेहरा न देखने की रूढ़िवादी परंपरा को ख़त्म करने के साथ गुर्जर समाज के श्राद्ध पूजा की संस्कृति और प्रथा को बचाने का भी काम किया है।
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