बस्तर से रजत वाजपेयी की रिपोर्ट।
जगदलपुर। विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा पर्व के तहत आज रात भीतर रैनी की रस्म अदा की जा रही है।
इस रस्म में 8 पहिये वाले 2 मंजिला विशालकाय रथ में मां दंतेश्वरी के छत्र को रखकर विधि-विधान से परिक्रमा कराई जाएगी।
इसके बाद रथ को दंतेश्वरी मंदिर के सामने सिंह ड्योढी पर रोककर उसमें से मांई के छत्र को रथ से उतारकर मंदिर में रखा जाएगा।
रथ को सिंह ड्योढी पर ही छोड़ दिया जाएगा।
रथ को चोरी करते हैं आदिवासी
इसके बाद इस रथ को चोरी कर आदिवासी, कुम्हड़ाकोट के जंगल ले जाएंगे। बता दें कि इससे पहले, बस्तर दशहरा के तहत कल रात मावली परघाव की रस्म अदा की गई।
बस्तर दशहरा में भीतर रैनी केवल रथयात्रा की कहानी नहीं, बल्कि राजा और प्रजा के बीच की आपसी समझ-बूझ और लोकतांत्रिक व्यवस्था का अनुपम उदाहरण भी है।
माड़िया जनजाति लोग ही खींचते हैं रथ
दशहरे की परम्पराओं का निष्ठा से पालन और आस्था के निर्वहन के साथ अपनी जायज मांगों को राजा से मनवाने के लिये किलेपाल के माड़िया जनजाति के लोग, जिन्हें ही आज और बाहररैनी का रथ खींचने का विशेष अधिकार मिला है।
उनकी कुछ मांगों को न मानने के विरोध स्वरूप वे आधी रात को रथ चुराकर शहर की सीमा के पास जंगल में छिपा देते हैं।
रस्म को लेकर ये मान्यता है प्रचलित
सुबह जब राजा के संज्ञान में यह बात लाई जाती है तो वे पद-प्रतिष्ठा से परे स्वयं वहां जाकर उनसे चर्चा कर उनकी मांगों के प्रति सहमति व्यक्त कर वापस महल लौट आते हैं।
शाम को वे पुनः कुम्हाकोट पहुंच कर गणमान्य नागरिकों और मांझी, मुखिया, चालकी आदि के साथ नवान्न ग्रहण कर नवाखाई की रस्म पूरी करते हैं।
इस बीच दिन भर गांव-गांव से आये देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना और अन्य रस्में चलती रहती हैं।
राजशाही युग का दशहरा
इसके बाद राजा मांईजी के छत्र को लेकर रथारूढ़ होते हैं और फिर शुरू होती है 2 किमी की यात्रा।
इस दौरान रथ के ऊपर 2 व्यक्ति सफेद कपड़े को फेंक कर वापस खींचते हैं, जिसे वीरता और चुनौती का प्रतीक माना जाता है।
साथ ही विजय रथ की सकुशल यात्रा के आल्हाद को भी प्रदर्शित करता है। ये था राजशाही युग का दशहरा।
अब राजतंत्रीय व्यवस्था की समाप्ति के बाद ये सभी रस्में राजा के बिना निभाई जाती हैं।
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