केरल के कोच्चि स्थित केंद्रीय समुद्री मत्स्य अनुसंधान संस्थान ने एक बड़ा कारनामा किया है.भारत में पाई जाने वाली ऑयल सार्डिन मछली के पूरे जीनोम को डिकोड करने के लिए वैज्ञानिकों ने दिन-रात मेहनत की है.
इस मछली का सेवन बड़े पैमाने पर किया जाता है. तो आइए जानते हैं. ऑयल सार्डिन मछली के बारे में…
संस्थान के निदेशक ने कही ये बड़ी बातें
प्रधान वैज्ञानिक डॉ. संध्या सुकुमारन के नेतृत्व में शोधकर्ताओं के एक समूह ने डिकोड किया है.
संस्थान के निदेशक डॉ. ए.के. गोपालकृष्णन ने बताया कि डिकोडेड जीनोम ऑयल सार्डिन मछली के जीव विज्ञान और विकास को समझने में मदद करेगा.इसके साथ ही मछली के संरक्षण और टिकाऊ उपयोग के लिए प्रबंधन में भी सुधार लाया जा सकता है.
जानें ऑयल सार्डिन मछली के बारें में ..
इंडियन ऑयल सार्डिन, सार्डिनेला वंश की रे-फिनिश्ड मछली की एक प्रजाति है .इसे अपने मूल क्षेत्र में कुछ अन्य नामों से भी जाना जाता है जैसे माथी, चालाई, कवलाई, माथी, चला, पेडवे पड़वा, वाशी, तरला, थारला, गिस्बे और बूटहाई .
यह मैकेरल के साथ भारत की 2 सबसे महत्वपूर्ण व्यावसायिक मछलियों में से एक है.
यह सार्डिनेला की अधिक क्षेत्रीय रूप से प्रतिबंधित प्रजातियों में से एक है और हिंद महासागर के उत्तरी क्षेत्रों में पाई जा सकती है. यह मछली लाल सागर या फारस की खाड़ी में नहीं पाई जाती है.
इस मछली की ये है खासियत
यह मैकेरल के साथ भारत की 2 सबसे महत्वपूर्ण व्यावसायिक मछलियों में से एक है. यह मुख्य रूप से कर्नाटक, गोवा, केरल और दक्षिणी महाराष्ट्र में व्यावसायिक रूप से पकड़ा जाता है.
भारतीय तेल सार्डिन मछली का उपयोग मुख्य रूप से भोजन के लिए किया जाता है, लेकिन इसका उपयोग मछली के भोजन और मछली के गोले बनाने के लिए भी किया जाता है.
इसका विपणन आमतौर पर ताजा, स्मोक्ड, डिब्बाबंद, सूखा और सूखा-नमकीन किया जाता है. मछलियाँ एक वर्ष के भीतर परिपक्वता तक पहुँच जाती हैं, और उनका औसत जीवनकाल 2.5 से 3 वर्ष के बीच होता है.
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