pc- Neil Rudrajeet Mukherjee
भोपाल। आज पूरी दुनिया में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जा रहा है। इस दिन सभी महिलाओं को लोग बधाइयां दे रहे हैं। इसी तरह कुछ विरली महिलाएं ऐसी भी हैं जिन्होंने असंभव के विरुद्ध जाकर काम किया। कई महिलाओं ने परंपराओं और रूढ़िवादिताओं की सीमाओं से ऊपर उठकर अपने समाज की सोच से परे मानव उद्धार के लिए काम किया। कई महिलाओं ने अपनी बुरी परिस्थितियों को दरकिनार करते हुए मानवता की ऐसी इबारत लिखी कि उनका काम आने वाले 100 सालों तक भी याद रखा जाएगा। ऐसी ही एक महिला है मप्र की राजधानी भोपाल में। यहां के हमीदिया अस्पताल में कार्यरत 50 साल की हीराबाई पेशे से तो नर्स हैं, लेकिन पिछले 25 सालों से 25 सौ से ज्यादा लोगों के शवों का अंतिम संस्कार कर चुकीं हैं। हीराबाई को लोग अब प्यार से बुआ के नाम से भी बुलाते हैं। “बुआ हीराबाई” महिला होने के बाद भी मुक्तिधाम में लोगों का अंतिम संस्कार कराते हुए दिखती हैं।
ऐसे हुआ सफर शुरू…
दरअसल, यह सफर आज से 25 साल पहले शुरू हुआ था। तब एक दलित बुजुर्ग महिला के बेटे का निधन हो गया था। बुजुर्ग महिला के पास उसका अंतिम संस्कार कराने का कोई साधन नहीं था। जब महिला की किसी ने मदद नहीं की तो वह हीराबाई के पास आई। हीराबाई ने महिला की मदद करते हुए उसके बेटे के अंतिम संस्कार के लए चंदा इकट्ठा किया। इसके बाद हीराबाई ने खुद महिला के बेटे का अंतिम संस्कार कराया। सफर की पहली अनायास सीढ़ी पर हीराबाई बताती हैं कि महिला दलित थी, इसी कारण कोई भी उसकी मदद नहीं कर रहा था। महिला खुद बुजुर्ग होने के कारण अंतिम संस्कार कराने में सक्षम नहीं थी। उस समय मैंने महिला की मदद की थी। इसके बाद से मैं यही काम लगातार 25 सालों से करती आ रही हूं। अब तक 25 सौ से ज्यादा शवों का अंतिम संस्कार कराया है। हीराबाई बताती हैं कि ज्यादातर लावारिश शवों का अंतिम संस्कार कराया जाता है। कई लावारिश शवों को दफनाया भी जाता है ताकि जरूरत पड़ने पर शव को बाहर निकाला जा सके।
काम से मिलती है खुशी…
हीराबाई बताती हैं कि वह यही काम 25 सालों से कर रही हैं। वह रोजाना अस्पताल ड्यूटी के बाद मंदिर के पास पहुंचती हैं। यहां कई परिजन जो अंतिम संस्कार कराने में सक्षम नहीं हैं उनकी मदद करती हैं। हीराबाई रोजाना यहां मृतकों के परिजनों की मदद करने पहुंचती है। हीराबाई अब भोपाल के पुराने शहर में काफी पहचाना नाम हैं। इतना ही नहीं लोगों ने हीराबाई को प्यार से बुआ भी बुलाना शुरू कर दिया है। लंबे समय से उन्हें लोग हीरा बुआ के नाम से भी जानते हैं। हीराबाई बताती हैं कि मेरा इकलौता बेटा है। जब मैंने यह काम शुरू किया था तब वह काफी छोटा था। परेशानी के दौर में भी मैंने इस काम को नहीं छोड़ा। इस काम से मुझे संतुष्टि मिलती है। हीराबाई अपने काम को नारायण की सेवा समझती हैं। मेरे बेटे ने हमेशा ही मेरी मदद की है। जब मेरा बेटा छोटा था तो वह अपने हाथों से लकड़ियां इकट्ठी करने में मेरी मदद करता था। आज भी वह उतना ही सपोर्टिव है।
मिल चुके हैं कई अवॉर्ड…
हीराबाई को इस काम के लिए अब तक कई समाज समाज सेवा सम्मान मिल चुके हैं। समाज रत्न सम्मान, महिला गर्व सम्मान, अंबेडकर सेवा सम्मान इनमें से कुछ ही हैं। हालांकि हीराबाई का काम किसी सम्मान का मोहताज नहीं है। हीराबाई के बेटे मोहित परदेसी बताते हैं कि सही मायनों में नारी सशक्तिकरण यही है। मैंने जब से होश संभाला है तभी से मैं अपनी मां को यह जनकल्याणकारी काम करते देख रहा हूं। मुझे उनका बेटा होने पर आज गर्व है। वहीं हीराबाई बताती हैं कि मैं भले ही अपनी अस्पताल की ड्यूटी से सेवानिवृत्त हो जाऊं लेकिन यह काम जीवन पर्यंत करती रहूंगी।